बुधवार, 17 दिसंबर 2008

जानवर हो गए हैं हम...

साहिल थे कभी आज लहर हो गए हैं हम
इस जहाँ को सुधा दे ख़ुद ज़हर हो गए हैं हम।

आज हम ख़ुद को यहाँ ढूंढते फिरते रहे हैं
दुनिया की इस भीड़ में जाने कहाँ खो गए हैं हम।

हम जगाते थे जहाँ को रात और दिन जागकर
क्या हुआ जो आजकल ख़ुद भी सो गए हैं हम।

हमने ही लाशें बिछाई भूलकर सब रिश्तों को
याद करके उनको फ़िर क्यूँ आज रो रहे हैं हम।

जानवर थे हम कभी, आदमी फ़िर बन गए
आदमी से आज फिर जानवर हो गए हैं हम।

5 टिप्‍पणियां:

रंजना ने कहा…

यथार्थ का सटीक और सुंदर चित्रण किया है आपने.सुंदर रचना.

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बहुत बढिया रचना है।

जानवर थे हम कभी, आदमी फ़िर बन गए
आदमी से आज फिर जानवर हो गए हैं हम।

दीपक कुमार भानरे ने कहा…

बेहतरीन अभिव्यक्ति . बधाई .

तीसरा कदम ने कहा…

बहुत शानदार लिखा है विवेक भाई .

Vivek Keserwani ने कहा…

बदलते इंसान और बदलते ज़माने की सच्ची दास्ताँ, यदि इंसान यूँ ही बदलता रहा तो किधर पहुंचेंगे हम?
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