साहिल थे कभी आज लहर हो गए हैं हम
इस जहाँ को सुधा दे ख़ुद ज़हर हो गए हैं हम।
आज हम ख़ुद को यहाँ ढूंढते फिरते रहे हैं
दुनिया की इस भीड़ में जाने कहाँ खो गए हैं हम।
हम जगाते थे जहाँ को रात और दिन जागकर
क्या हुआ जो आजकल ख़ुद भी सो गए हैं हम।
हमने ही लाशें बिछाई भूलकर सब रिश्तों को
याद करके उनको फ़िर क्यूँ आज रो रहे हैं हम।
जानवर थे हम कभी, आदमी फ़िर बन गए
आदमी से आज फिर जानवर हो गए हैं हम।
बुधवार, 17 दिसंबर 2008
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5 टिप्पणियां:
यथार्थ का सटीक और सुंदर चित्रण किया है आपने.सुंदर रचना.
बहुत बढिया रचना है।
जानवर थे हम कभी, आदमी फ़िर बन गए
आदमी से आज फिर जानवर हो गए हैं हम।
बेहतरीन अभिव्यक्ति . बधाई .
बहुत शानदार लिखा है विवेक भाई .
बदलते इंसान और बदलते ज़माने की सच्ची दास्ताँ, यदि इंसान यूँ ही बदलता रहा तो किधर पहुंचेंगे हम?
विवेकवेबलॉग
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