शनिवार, 20 दिसंबर 2008

इस जहाँ को लग गई किसकी नज़र...

इस जहाँ को लग गई किसकी नज़र है,
कौन जाने यह भला किसका कहर है?

आदमी ही आदमी का रिपु बना है,
दो दिलों में छिडी यह कैसी ग़दर है?

ढूँढने से भी नहीं मिलती मोहब्बत,
नफरतों की जाने कैसी यह लहर है?

स्वार्थ ही अब हर दिलों में बस रहा,
यह हवा में घुल रहा कैसा ज़हर है?

हर तरफ़ हत्या, डकैती, राहजनी,
अमन का जाने कहाँ खोया शहर है?

मंजिलों तक जो हमें पहुँचा सके,
अब भला मिलती कहाँ ऐसी डगर है?

उदित होगा फिर से एक सूरज नया,
हमको इसकी आस तो अब भी मगर है।

2 टिप्‍पणियां:

तीसरा कदम ने कहा…

आपके इस आगन में टिपण्णी का छोटा सा घरोंदा हमारा भी स्वीकार करें..............

कभी कभी ख़ुद की नजर भी लग जाती है दोस्त.........

Dr. Ashok Kumar Mishra ने कहा…

भाव और िवचार के समन्वय से रचना प्रभावशाली हो गई है । अच्छा िलखा है आपने । जीवन के सत्य को सामाियक संदभोॆं में यथाथॆपरकर ढंग से अिभव्यक्त िकया है । मैने अपने ब्लाग पर एक लेख िलखा है-आत्मिवश्वास के सहारे जीतें िजंदगी की जंग-समय हो तो पढें और अपनी कीमती राय भी दें-

http://www.ashokvichar.blogspot.com